काकोरी कांड के आज पूरे हुए 100 साल, झांसी में छिपे ‘आजाद’; यहीं से लंदन भागा था अंग्रेज जज

काकोरी कांड की आज 100वीं वर्षगांठ है. इस घटना को अंजाम देने के बाद झांसी में चंद्रशेखर आजाद के छिपने और अंग्रेज जज के भागने की कहानी रोमांचक है. मात्र ₹4553 की लूट ने ब्रिटिश सरकार को इस कदर हिला दिया था कि क्रांतिकारियों को सजा दिलाने में ही अंग्रेजों ने ₹10 लाख से अधिक रुपये खर्च कर दिए.

काकोरी कांड

आज नौ अगस्त है. यह कोई सामान्य तारीख नहीं, बल्कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की वह तारीख है, जिसने पूरे संग्राम को ऐतिहासिक मोड़ दिया था. जी हां, हम बात कर रहे लखनऊ के काकोरी कांड की. इसमें देश के क्रांतिवीरों ने लखनऊ से आठ किमी दूर काकोरी में आठ डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन को रोकर इसमें ले जाया जा रहा सरकारी खजाना लूट लिया था. आज इस कांड के 100 साल पूरे हुए हैं. इसलिए मौका भी है, मौसम भी और दस्तूर भी कि उस घटना को फिर से याद किया जाए और शहीदों को याद किया जाए. इस घटनाक्रम का झांसी से सीधा कनेक्शन है.

कहानी की शुरूआत अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा से करते हैं. बिस्मिल लिखते हैं कि उन दिनों क्रांतिकारियों को अपना ऑपरेशन जारी रखने में आर्थिक तंगी आड़े आ रही थी. इसलिए तय किया गया कि भारत का खजाना, जिसे लूट कर अंग्रेज ले जा रहे हैं, उसी को लूटा जाए और उसी से हथियार व असला-बारूद खरीदा जाए. इसके लिए लखनऊ में योजना बनी और 9 अगस्त 1925 को क्रांतिकारियों ने इस घटना को अंजाम दिया. बाद में यह घटना ब्रिटिश साम्राज्य को हिला देने वाली बनी. इस प्रसंग में उसी घटना क्रम के रोचक किस्सों पर नजर डालेंगे.

झांसी में आजाद बने थे मोटर मकेनिक

काकोरी कांड के बाद क्रांतिकारियों पर गिरफ्तारी की तलवार लटक गई थी. अशफाक उल्ला खां, ठाकुर रोशन सिंह, राजेंद्र लाहिड़ी, मन्मथनाथ गुप्ता और अन्य साथियों के साथ चंद्रशेखर आजाद फरार हो गए. आजाद वहां से सीधे बनारस पहुंचे और फिर झांसी आ गए थे. इतिहासकारों की मानें तो झांसी में आजाद ने मास्टर रुद्र नारायण के घर में कई महीने बिताए. वह यहां वेष बदलकर सदर बाजार स्थित बुंदेलखंड मोटर्स वर्क्स में डेढ़ साल तक मैकेनिक का काम कर रहे, लेकिन किसी को भनक तक नहीं लगी. यही वजह रही कि कोर्ट मकें कभी आजाद पर ट्रायल शुरू नहीं हो सका.

झांसी से ही लंदन भागा जज

काकोरी कांड का ट्रायल लखनऊ की अदालत में हुआ. मामले की सुनवाई 18 महीने तक चली. इसके बाद स्पेशल सेशन जज ए हैमिल्टन ने क्रांतिकारियों को सुजा सुना दिया. हालांकि सजा सुनाते ही वह भांप गया था कि उसके ऊपर कभी भी हमला हो सकता है. ऐसे में 17 दिसंबर 1927 को फैसला सुनाने के चंद घंटे बाद ही वह झांसी के सैन्य ठिकाने में आकर छिप गया और यहीं से छिपते छिपाते वह बंबई पहुंचा और वहां से लंदन भाग गया. इसके बाद उसने कभी दोबारा भारत लौटने की हिम्मत नहीं की. इस पूरे घटनाक्रम का विवरण काकोरी षड्यंत्र केस में छह साल की सजा पाने वाले रामदुलारे त्रिवेदी ने भी अपनी किताब काकोरी कांड के दिलजले में किया है.

लूट केवल चार हजार की, खर्च हुए 10 लाख रुपये

क्रांतिकारियों ने काकोरी कांड को अंजाम देते हुए ट्रेन में से जो खजाना लूटा था, उसमें सिर्फ 4553 रुपये 3 आना और 6 पाई ही था. लेकिन इस लूट से ब्रिटिश सरकार इस कदर तिलमिला गई कि क्रांतिकारियों को सजा दिलाने में 10 लाख रुपये से भी अधिक खर्च कर दिए. केवल सरकारी वकील पं. जगतनारायण को ही रोजाना 500 रुपये का भुगतान किया जाता था. उस जमाने में यह काफी बड़ी रकम होती थी. इस मुकदमे में क्रांतिकारियों का पक्ष गोविंद बल्लभ पंत और चंद्रभान गुप्ता जैसे नामी वकील रख रहे थे. ब्रिटिश सरकार ने काकोरी कांड को अंजाम देने वाले क्रांतिकारियों पर पांच हजार रुपये का इनाम घोषित किया था. वहीं मामले की जांच के लिए स्कॉटलैंड यार्ड से विशेष सीआईडी अधिकारी बुलाए गए थे