माता पिता की उपेक्षा पाप और कानूनन अपराध, हम मूकदर्शक नहीं बन सकते: इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक बुजुर्ग पिता की याचिका पर ये अहम टिप्पणी की है. बेटों ने भूमि अधिग्रहण के मुआवजे को लेकर बुजुर्ग पिता के साथ दुर्व्यवहार किया था. कोर्ट ने कहा, 'जिस घर में माता पिता का अपमान हो वह घर नहीं अन्याय स्थल है. अदालत मूकदर्शक नहीं बन सकती है.'

इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक बुजुर्ग पिता की गुहार पर अहम फैसला सुनाया है, जो आज के समय में हर किसी के लिए अग्रिम सलाह भी है. संतकबीर नगर के बुजुर्ग राम दुलार गुप्ता ने बेटों के दुर्व्यवहार पर हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. बुजुर्ग की याचिका स्वीकार करते हुए कोर्ट ने कहा कि माता-पिता का अपमान घोर अनैतिक है और यह कानूनन अपराध भी है.

बुजुर्ग पिता का आरोप है कि भूमि अधिग्रहण के मुआवजा की राशि के लिए उनके बेटों ने दुर्व्यवहार शुरू कर दिया. उन्हें बेटों द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा है, ऐसे में वह इस उम्र में कहा जाएंगे. अपने बेटों से परेशान होकर उन्होंने हाईकोर्ट में याचिका दायर की. सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा, ‘जिस घर में माता पिता का अपमान हो वह घर नहीं अन्याय स्थल है.’

अदालत मूकदर्शक नहीं बन सकती है

बुजुर्ग राम दुलार गुप्ता ने दायर याचिका में कहा कि उनके बेटे भूमि अधिग्रहण के मुआवजा को लेकर परेशान कर रहे हैं. उनकी जमीन को राष्ट्रीय राजमार्ग के लिए अधिग्रहित किया गया था. इसके एवज में उनके पक्ष में 21 लाख 17 हजार 758 रुपए की मुआवजा राशि निर्धारित की गई थी. वहीं, अब मुआवजा की राशि पर उनके बेटों ने उनके संग दुर्व्यवहार शुरू कर दिया.

इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस महेश चंद्र त्रिपाठी और जज प्रशांत कुमार की डिवीजन बेंच ने इस याचिका पर सुनवाई की. कोर्ट ने कड़े शब्दों में इसके लिए उनके बेटों को फटकार लगाई. पीठ ने कहा कि कि माता पिता की उपेक्षा पाप और कानूनन अपराध है, अदालत मूकदर्शक नहीं बन सकती है. जिस घर में माता पिता का अपमान हो वह घर नहीं अन्याय स्थल है.

यह घोर अनैतिक दिवालियापन है

कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए बुजुर्ग की याचिका का संज्ञान लिया और मुआवजे की पूरी राशि याची को अदा करने का आदेश दिया है. बुजुर्ग की याचिका स्वीकार करते हुए कोर्ट ने कहा कि इससे बड़ा कोई सामाजिक पतन नहीं हो सकता है, जब संतान ही अपने माता-पिता की मूक पीड़ा से मुंह मोड़ ले. कोर्ट ने कहा कि यह घोर अनैतिक दिवालियापन है.

जस्टिस महेश चंद्र त्रिपाठी ने कहा कि माता-पिता अपने जीवन के स्वर्णिम वर्ष बच्चों की परवरिश में खफा देते हैं. इसके बाद जब उन्हें सहारे की जरूरत होती है तो वह वही बच्चे उन्हें ठुकरा देते हैं. यह न केवल अमानवीय है बल्कि अनुच्छेद 21 के तहत सम्मान पूर्वक जीवन के अधिकार का उल्लंघन है. यह फैसला वृद्धों के प्रति सम्मान और उनके अधिकारों की रक्षा का एक महत्वपूर्ण संदेश देता है.