क्रांतिकारी रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ से क्यों थर- थर कांपते थे अंग्रेज ?
आजादी का जो जश्न हम धूमधाम से मना रहे हैं, इसके पीछे उन क्रांतिकारियों की जवानी खपी है, जिन्होंने देश को गुलामी की जंजीरों से आजाद करने के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की. ऐसे ही एक क्रांतिकारी थे रामप्रसाद ‘बिस्मिल’. अंग्रेजों ने जब उन्हें पकड़ा तो ऐसी दर्दनाक मौत दी कि सुनके ही आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे.

क्रांतिकारी रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ आजादी की लड़ाई के वो हीरो हैं, जिन्होंने न केवल अंग्रेजी सरकार की नाक में दम करके रखा था बल्कि गोरी सरकार उन्हें पकड़ने के लिए इतना बेताब थी कि वो बिस्मिल को जिंदा या मुर्दा हर हाल में पकड़ना चाहती थी. लेकिन वो शेर “सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है” का गीत गाते हुए लंबे समय तक ब्रिटिश सरकार की पहुंच से दूर रहकर गोरी सरकार के लिए रास्ते का पत्थर बना रहा. और जब आखिरकार अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ा तो ऐसी दर्जनाक मौत दी कि सुनके आपकी रूह कांप जाएगी.
सरकार का अत्याचार देखके बने क्रांतिकारी
यूपी के शाहजहाँपुर जिले में पैदा हुए ‘बिस्मिल’ बचपन से ही निडर और निर्भीक स्वभाव वाले थे. जैसे- जैसे वे बड़े हुए उन्होंने देखा कि कैसे एक विदेशी सरकार उनके मुल्क के लोगों पर अत्याचार कर रही है. ये सब देखकर उनके भीतर की क्रांति भड़क उठी और फिर वे अंग्रेजी सरकार के लिए रास्ते का कांटा बन गए.

ऐसे शुरू हुआ क्रांति का सफर
1905 में बंग-भंग और 1915 में गदर आंदोलन से प्रेरित होकर बिस्मिल जी ने क्रांतिकारी मार्ग अपनाया. लाला हरदयाल, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों के विचारों ने उन्हें और हौसला दिया.
वे मैनपुरी षड्यंत्र मामले में शामिल रहे, जिसमें क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ हथियारों को जुटाने की योजना बनाई थी.
बिस्मिल ने अपने साथियों के साथ हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) की स्थापना की, जिसका उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के जरिए ब्रिटिश शासन को समाप्त करना था. इस संगठन में चंद्रशेखर आज़ाद, अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान, राजेंद्रनाथ लाहिड़ी, और शचींद्रनाथ बख्शी जैसे क्रांतिकारी शामिल थे.
काकोरी में अंग्रेजी खजाना लूटा
9 अगस्त 1925 स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में ऐसी तारीख है, जब क्रांतिकारियों ने हथियार खरीदने के लिए अंग्रेजी खजाना लूटने का फैसला किया. काकोरी कांड, जिसमें रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने अन्य साथियों की मदद से सरकारी खजाने को लूट लिया. यह लूट लखनऊ के पास काकोरी रेलवे स्टेशन पर की गई थी. ब्रिटिश सरकार ने इस घटना में शामिल क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया.
दी गई दर्दनाक मौत
आखिरकार बिस्मिल भी विदेशी हुकूमत की पकड़ में आ गए और फिर गोरी सरकार ने उन पर मुकदमा चलाया. 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल में उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया. फाँसी के समय उन्होंने निर्भीकता से कहा “मैं हिंदुस्तान के लिए मर रहा हूँ, खुश हूँ, कोई ग़म नहीं।”



