बलिया के ददरी मेले को वैसे तो उत्तर भारत का दूसरा सबसे बड़ा मेला कहा जाता है, लेकिन इस साल यह मेला अपनी रौनक खो चुका है. मेला क्षेत्र बढ़ने के बावजूद बॉलीवुड और अन्य कलाकारों की अनुपस्थिति, साथ ही लंपी वायरस के डर से पशु मेले का न लगना इसकी प्रमुख वजहें हैं. मेले की शान भारतेंदु मंच पांच दिनों से सूना पड़ा है.
महर्षि भृगु ने भगवान नारायण को लात मारकर अपने अपराधबोध से मुक्ति पाने के लिए तमसा नदी में स्नान किया था. बलिया की तमसा नदी में कार्तिक पूर्णिमा पर डुबकी लगाने से ब्रह्म हत्या सहित सभी पाप धुल जाते हैं. ददरी मेले से जुड़ा यह स्नान वैज्ञानिक रूप से भी त्वचा रोगों व मातृत्व गुणों को मजबूत करने में सहायक माना जाता है. यह प्राचीन परंपरा आज भी लोगों की आस्था का केंद्र है.
कार्तिक पूर्णिमा पर बलिया का प्रसिद्ध ददरी मेला आज रात 12 बजे से शुरू होगा. अभी से मेले में लाखों श्रद्धालु गंगा स्नान और दर्शन के लिए पहुंच चुके हैं. प्रशासन ने इस भीड़ को देखते हुए शहर में वाहनों के प्रवेश पर रोक लगा दी है. इसके लिए जगह-जगह रूट डायवर्जन व पार्किंग की विशेष व्यवस्था की है.
बलिया का प्रसिद्ध ददरी मेला सरयू और गंगा नदी के संगम, घाघरा के नामकरण और लिट्टी चोखा के उद्भव से जुड़ा है. ज्योतिष गणनाओं से महर्षि भृगु को पता चला कि गंगा तो भविष्य में सूख जाएंगी. ऐसे में उन्होंने ऋषि दर्दर को प्रेरित किया और फिर महर्षि वशिष्ठ की अनुमति से सरयू की धारा को अयोध्या से खींचकर बलिया में गंगा में मिला दिया गया. सरयू और गंगा का यह संगम कार्तिक पूर्णिमा को हुआ और ददरी मेले की शुरुआत हुई.
बलिया दिवस सरकारी रिकॉर्ड से 1 नवंबर को मनाया जाता है, पर इसका इतिहास कहीं अधिक प्राचीन है. इस कहानी में हम बलिया के उस गौरवशाली अतीत को बयां कर रहे हैं, जो आज भी बलिया के तेवर और उपलब्धियों को उजागर करता है. इसमें महर्षि भृगु की धरती पर अग्नि की खोज, राजा बलि की राजधानी, और रामायण काल से जुड़े महत्वपूर्ण स्थल शामिल हैं. बलिया का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व अद्वितीय है.
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