घाघरा का संगम नहीं होता तो सूख जाती गंगा! अयोध्या से कैसे बलिया पहुंची सरयू, ददरी मेले की कहानी

बलिया का प्रसिद्ध ददरी मेला सरयू और गंगा नदी के संगम, घाघरा के नामकरण और लिट्टी चोखा के उद्भव से जुड़ा है. ज्योतिष गणनाओं से महर्षि भृगु को पता चला कि गंगा तो भविष्य में सूख जाएंगी. ऐसे में उन्होंने ऋषि दर्दर को प्रेरित किया और फिर महर्षि वशिष्ठ की अनुमति से सरयू की धारा को अयोध्या से खींचकर बलिया में गंगा में मिला दिया गया. सरयू और गंगा का यह संगम कार्तिक पूर्णिमा को हुआ और ददरी मेले की शुरुआत हुई.

बलिया में लगा ददरी मेला

उत्तर प्रदेश के बलिया में बहुप्रतिष्ठित ददरी मेले की तैयारियां जोर शोर से शुरू हो गई है. वैसे यह मेला तो पांच नवंबर को शुरू होगा, लेकिन अभी से दूर-दराज से श्रद्धालु पहुंचने लगे हैं. इस मेले का खास आकर्षण मीना बाजार सज गया है. चाट पकौड़ी की दुकान से लेकर झूले एवं अन्य दुकानें भी सज गई हैं. ऐसे में यह सही मौका है कि कि ददरी मेले की उस कहानी को भी जान लिया, जिसके लिए यह सारी तैयारियां हो रही हैं.

त्रेता युग का समय था. लंका विजय कर अयोध्या लौटे भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक हो चुका था. बलिया-मऊ-आजमगढ़ आदि इलाकों पर भगवान श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण के बड़े पुत्र चंद्रकेतु का शासन था. उन्हीं दिनों भगवान नारायण के वक्ष पर लात मारने के बाद महर्षि भृगु बलिया में परमपिता ब्रहा के निर्देश पर बलिया में गंगा तट पर तपस्या कर रहे थे. उन दिनों महर्षि भृगु के गुरुकुल में ज्योतिष विज्ञान पर रिसर्च चल रहा था. इस दौरान पाया गया कि कलियुग के शुरूआती 5000 वर्षों धरती पर इतना पाप बढ़ जाएगा कि गंगा सूख जाएंगी.

ददरी मेले में आने लगे साधु संत

भृग संहिता में है वर्णन

भृगु संहिता में वर्णन मिलता है कि इस रिसर्च के परिणाम को देखकर महर्षि भृगु चिंतित हो गए और उन्होंने अपने शिष्य दर्दर के साथ अयोध्या जाकर ब्रह्मर्षि वशिष्ठ से इसकी चर्चा की. तय हुआ कि गंगा को बचाने का एक ही उपाय है कि सरयू को गंगा में मिला दिया जाए. उस समय तक सरयू का प्रवाह केवल अयोध्या तक ही था. उसी समय महर्षि भृगु ने यह जिम्मेदारी दर्दर ऋषि को दी और काम शुरू हो गया. फिर महर्षि दर्दर ने कठोर परिश्रम और अपने तपोबल से सरयू की धारा को खींचकर बलिया ले आए और कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहां गंगा में संगम कराया.

ददरी मेले में लगे झूले

दर्दर ऋषि के नाम पर हुआ मेले का नामकरण

यहां जब सरयू की धारा गंगा की धारा में टकराई तो घर्र-घर्र की आवाज आने लगी. इसी आवाज को सुनकर महर्षि भृगु ने अयोध्या के आगे सरयू की धारा का नामकरण घघर किया जिसे बाद में घाघरा कहा गया. इसी प्रकार दर्दर ऋर्षि की उपलब्धियों को पुरस्कृत करने के लिए दुनिया भर के ऋषियों को आमंत्रित किया. उसी समय से कार्तिक पूर्णिमा के दिन इस धरती पर ऋषि-मुनियों का जमावड़ा होने लगा और मेले की परंपरा शुरू हुई. इसलिए दर्दर ऋषि के नाम पर ही इस मेले का नामकरण भी ददरी हुआ.

पहली बार यहीं बना था लिट्टी चोखा

बलिया और बिहार का प्रसिद्ध लिट्टी चोखा का इतिहास भी इसी ददरी मेले से जुड़ा है. दरअसल, जब सरयू का गंगा में संगम हुआ तो महर्षि भृगु ने दुनिया भर के ऋषि मुनियों को आमंत्रित किया था. ऐसे में एक समस्या आई कि इतनी संख्या में महात्माओं का भोजन कैसे तैयार हो. इसका समाधान भी भृगु ऋषि ने ही निकाला. चूंकि उस समय तक उनके आश्रम में महर्षि अंगिरा आग की खोज कर चुके थे. इसलिए उन्होंने आटे की लोइयां बनवाई और आग में डलवाते गए. इस प्रकार लिट्टी बनी. संयोग से उस संत समागम में बक्सर से महर्षि विश्वामित्र भी पहुंचे थे. उन्हें यह लिट्टी इतनी पसंद आई कि बक्सर लौटकर उन्होंने इसे नए तरीके से बनवाया. उन्होंने इस लिट्टी में मसाला भरवाया. तब इसका नाम भौरी पड़ा. धीरे धीरे यह लिट्टी चोखा यानी भौरी अलग अलग नाम और रूप के साथ दुनिया में प्रसिद्ध हो गई.