ब्राह्मण ही क्यों व्यास पीठ का अधिकारी? यादव के कथा सुनाने पर बवाल, जानें क्या कहते हैं धर्मग्रंथ

इटावा में एक गैर ब्राह्मण द्वारा भागवत कथा कहने पर हुए विवाद ने जातिगत टकराव की स्थिति पैदा कर दी है. सवाल है कि क्या केवल ब्राह्मण ही कथा व्यास हो सकते हैं? इस सवाल का जवाब श्रीमद्भागवत और पद्म पुराण में मिलता है. अब सवाल उठता है कि क्या यह भेदभाव है और क्या सभी के पास कथा सुनने-कहने का अधिकार नहीं है? इस तरह के सवालों का जवाब हम यहां बताने की कोशिश कर रहे हैं.

कथा व्यास पर मचा बवाल

इटावा में एक गैर ब्राह्मण व्यक्ति द्वारा श्रीमद भागवत महापुराण की कथा कहने पर बड़ा बवाल मचा हुआ है. आरोप है कि व्यास बने इस व्यक्ति के साथ मारपीट की गई और उसकी चोटी तक काट दी गई. इस मुद्दे पर राजनीति भी खूब हो रही है. ऐसे में यह सही मौका है कि यह जान लिया जाए कि कथा कौन कह सकता है और कथा व्यास की योग्यता क्या है? इन दोनों सवालों के जवाब वैसे तो कई पौराणिक ग्रंथों में मिलते हैं, लेकिन श्रीमद भागवत के महात्म्य प्रसंग में इसका सटीक विवरण मिलता है.

चूंकि कथा कहने और सुनने की परंपरा आज से करीब साढ़े पांच हजार साल पहले पांडव नंदन परीक्षित को लगे श्राप से हुई और इस श्राप के निवारण के लिए उन्हें भगवान शुकदेव ने श्रीमद भागवत की ही कथा सुनाई थी. इस श्रीमद भागवत कथा की रचना भले ही महर्षि वेद व्यास जी ने की, लेकिन उन्होंने खुद को कथा कहने के योग्य नहीं माना. इसलिए उसी समय कथा को कहने और सुनने के कुछ नियम भी तय किए गए थे, जिसे श्रीमद भागवत के महात्म्य प्रसंग में वर्णित किया गया है.

वेद व्यास ने खुद बताई योग्यता

महर्षि वेद व्यास भागवत महात्म्य में कथा व्यास की कुछ योग्यता बताते हैं. कहते हैं कि कथा व्यास को विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्रविशुद्धिकृत। दृष्टांतकुशलो धीरो वक्ता कार्योऽतिनिःस्पृहः।। होना चाहिए. मतलब कथा कहने वाला व्यक्ति माया मोह के बंधन और सांसारिक प्रपंचों से मुक्त विरक्त होना चाहिए. उसकी दूसरी योग्यता यह है कि वह वैष्णव यानी भगवान का भक्त होना चाहिए. तीसरी योग्यता वक्ता को विप्र यानी ब्राह्मण होना चाहिए. महर्षि वेद व्यास ने चौथी योग्यता बताई है कि व्यास को वेदशास्त्रविशुद्धिकृत होना चाहिए. मतलब कि उसे वेद शास्त्र का अच्छा ज्ञान होना चाहिए. व्यास को दृष्टान्तकुशल एवं धीर भी होना चाहिए, जो उदाहरण भी दे तो वह कथा की मर्यादा के बाहर ना जाए.

पद्म पुराण में भी है वर्णन

इसी बात को पद्मपुराण में भी समझाया गया है. इस महान ग्रंथ के मुताबिक आचार्यो वेदसम्पन्नो विष्णुभक्तो विमत्सरः। ब्राह्मणो वीतरागश्च क्रोधलोभ विवर्जितः॥ मतलब जो आचार्य सांसारिक प्रपंचों से विरक्त और भगवत्प्रेम में अनुरक्त हो, उसी विद्वान ब्राह्मण को विरक्त कहा गया है और वही व्यास पीठ पर बैठने का अधिकारी है. इससे यह तो साफ हो गया कि कथा कहने का अधिकार ब्राहम्ण को ही है. पद्मपुराण के वृंदावन माहात्म्य में तो एक तरह से साफ कर दिया गया है कि विष्णुदीक्षा विहीनानांनाधिकारः कथाश्रवे. मतलब यह कि जिसने विष्णु दीक्षा नहीं ली, उसे कथा कहने का अधिकार ही नहीं है.

ब्राह्मण को ही क्यों माना कथा कहने के योग्य?

अब सवाल यह कि ब्राह्मण को ही कथा कहने का अधिकार क्यों दिया गया? यह तो भेदभाव है. इस सवाल का जवाब भी श्रीमद भागवत और पद्म पुराण के साथ अन्य पौराणिक ग्रंथों में मिलता है. पहली बात यह कि कथा कहने और सुनने की परंपरा श्रीमद भागवत से ही शुरू हुई, इसलिए इसमें बताए नियमों को मानने में किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए. बावजूद इसके, चूंकि सनातन परंपरा में सवाल करने का अधिकार सबको है. इसलिए इसके जवाब भी मिलने चाहिए. भागवत के मुताबिक कोई भी विरक्त ब्राह्मण मोह माया और सांसारिक बंधन से मुक्त हो जाता है और वह केवल विश्व कल्याण की बात सोचता है. उसकी इच्छा रहती है कि येन केन प्रकारेण जीव को ईश्वर से जोड़ दिया जाए. चूंकि वह यज्ञोपवीत धारण कर त्रिसंध्या करता है और सभी भगवत नियमों का पालन करता है, इसलिए उसकी वाणी शुद्ध होती है.

क्या कहती है मनु स्मृति?

अब सवाल उठता है कि कथा कहने वाले ऐसे ब्राह्मण कहां से आएं? तो इस सवाल का जवाब मनु स्मृति में मिलता है. मनु स्मृतिकार खुद ब्राह्मणों को चार कैटेगरी में बांटते हैं. मनु स्मृति के मुताबिक अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुनः। या वृत्तिस्तां समास्थाय विप्रो जीवेदनापदि॥ मतलब ब्राह्मण वह है जो दूसरों को कष्ट दिए बिना निरापद जीवन व्यतीत करे. अगले श्लोक में कहते हैं कि यात्रामात्र प्रसिद्ध्यर्थं स्वै: कर्मभिरगर्हितै:। अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धनसञ्चयम् ॥ मतलब दूसरों का अहित किए बिना या किसी के शरीर को कष्ट दिए बिना केवल प्राणरक्षा के निमित्त धन-धान्य का संग्रह करे. अगले श्लोक में मनु स्मृतिकार ब्राह्मण को कुत्ते की वृति से बचने की सलाह देते हैं. कहते हैं कि ऋृतामृताभ्यां जीवेत्तु प्रमृतेन वा। सत्या नृताभ्यामपि वा न श्र्ववृत्तया कदाचन॥ मतलब ब्राह्मण को कुत्ते की वृति से बचना चाहिए और उसे धन का लोभी नहीं होना चाहिए.