एनडीए में दरार या निशाने पर सरकार,संजय निषाद सहित सहयोगी दलों की मंशा… क्या बीजेपी अपनों से जूझ रही है?

उत्तर प्रदेश की सियासत में बीजेपी के लिए अपने सहयोगी दल अब "दोस्त" बनकर मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं. निषाद पार्टी, एसबीएसपी, और अपना दल जैसे दल बीजेपी को गठबंधन तोड़ने तक की बात कह दे रहे हैं. 20 अगस्त को दिल्ली में निषाद पार्टी के कार्यक्रम और 26 अगस्त को गोरखपुर में संजय निषाद की प्रेस कॉन्फ्रेंस ने साफ कर दिया है कि 2027 से पहले बीजेपी को अपने "अपनों" से ही जूझना पड़ सकता है. क्या यह प्रेशर पॉलिटिक्स है या गठबंधन बदलने की तैयारी या 2027 के विधानसभा चुनाव के पहले की सुगबुगाहट?

बीजेपी सहयोगी दल के नेता

‘अपनों से जूझती भाजपा’ लोग डरते हैं दुश्मनी से तिरी, हम तिरी दोस्ती से डरते हैं…..बीजेपी को हबीब जालिब का ये शेर इस समय खूब याद आ रहा होगा. निषाद पार्टी के अध्यक्ष और कैबिनेट मंत्री संजय निषाद ने बगावती तेवर में सीएम के गढ़ में जिस तरह से बीजेपी को गठबंधन तोड़ लेने तक की बात कही उससे तो ये साफ है कि संजय निषाद की दोस्ती बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती हैं. सिर्फ संजय निषाद ही क्यों?

पंचायत और एसटी रिजर्वेशन पर ओमप्रकाश राजभर और अपना दल के आशीष पटेल भी इसी राह पर हैं. बीजेपी को अब चुनौती बाहर से ज़्यादा गठबंधन के अंदर से मिल रही है. अब बड़ा सवाल ये है कि 2027 के चुनाव में जाने से पहले बीजेपी एनडीए के घटक दलों को साथ लेकर चलेगी या फिर किसी राजनीतिक मोड़ पर अलविदा कह देगी?

बीजेपी के बड़े नेता नहीं रहे मौजूद

20 अगस्त को दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में निषाद पार्टी के 10वें स्थापना दिवस समारोह ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में हलचल मचा दी. इस मंच पर निषाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और यूपी सरकार में मत्स्य पालन मंत्री संजय निषाद, एसबीएसपी के ओम प्रकाश राजभर, अपना दल (एस) के आशीष पटेल, और आरएलडी के प्रतिनिधि चंदन चौहान एक साथ नजर आए. इस सभा में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की अनुपस्थिति ने सियासी गलियारों में सवाल खड़े कर दिए.

निषाद पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, “योगी आदित्यनाथ लखनऊ और गोरखपुर में हमारे कार्यक्रमों में हमेशा रहे हैं, लेकिन दिल्ली में यह दुर्लभ एकजुटता थी. यह भविष्य की रणनीति का संकेत है.” इसके ठीक छह दिन बाद ही 26 अगस्त को गोरखपुर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में डॉक्टर संजय निषाद ने बीजेपी को खुली चुनौती देते हुए कहा, “अगर बीजेपी को लगता है कि हमें गठबंधन में रखने से कोई फायदा नहीं है, तो वह गठबंधन तोड़ सकती है. लेकिन, यह भ्रम न पाले कि यूपी की जीत सिर्फ उसकी थी. यह जीत हमारी सामूहिक ताकत का नतीजा थी.

क्या 2027 के चुनाव की तैयारी है?

ये दो घटनाएं यूपी में सियासी गुणा भाग की संभावनाओं की ओर इशारा कर रहे हैं. कि ये पॉलिटिकल प्रेशर है या फिर 2027 में अपनी ताकत बढ़ाने का एक तरीका या दिल्ली – लखनऊ के बीच की नूरा कुश्ती! वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय कहते हैं कि “इस पॉलिटिकल गेम की पृष्ठभूमि में दिल्ली है” संतोष भरतिया ने टीवी 9 से बातचीत करते हुए कहा कि जब बीजेपी सीनियर मोस्ट लीडर डिप्टी सीएम को अपना दोस्त बनाएंगे और सीएम योगी का नाम तक नही लेंगे तो ये नतीजा तो सामने आना ही था. सहयोगी दल सीएम और सरकार को तवज्जो क्यों देंगे?

लेकिन, वरिष्ठ पत्रकार हर्षवर्धन त्रिपाठी इस मामले को दूसरे नजरिये से देख रहे हैं. हर्षवर्धन त्रिपाठी ने टीवी 9 से हुई बातचीत में बताया कि वो इसे प्रेशर पॉलिटिक्स के तौर पर देख रहे हैं. सहयोगी दलों के प्रेशर पॉलिटिक्स की आड़ में तात्कालिक फ़ायदा कैबिनेट एक्सपेंशन में और दूरगामी लाभ लेने की मंशा 2027 के विधानसभा में ज़्यादा सीटें लेने या फिर गठबंधन बदल देने की हो सकती हैं. बीजेपी की सबसे बड़ी कमजोरी यही रही कि वो यूपी की कास्ट बेस्ड पॉलिटिक्स में अलग-अलग जातियों के बीच अपने नेता नहीं पैदा कर पाई.

सहयोगियों का सामाजिक इंजीनियरिंग दांव

निषाद पार्टी का निषाद समुदाय (30-35 सीटों पर प्रभाव), अपना दल का कुर्मी समुदाय (20-25 सीटें), एसबीएसपी का राजभर समुदाय (15-20 सीटें), और आरएलडी का जाट समुदाय (पश्चिमी यूपी में मजबूत पकड़) मिलकर 80-90 विधानसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका निभा सकता है. ये दल अब केवल वोटबैंक की भूमिका तक सीमित नहीं रहना चाहते. वे अपने-अपने समुदायों के लिए ठोस नीतिगत लाभ, मंत्रिमंडल में हिस्सेदारी, और टिकट वितरण में गारंटी चाहते हैं.

निषाद पार्टी

संजय निषाद ने निषाद समुदाय के लिए एससी आरक्षण को अपनी पार्टी की “रेड लाइन” बना दिया है. जुलाई-अगस्त 2025 में उनके बयानों में यह साफ झलका कि अगर यह वादा पूरा नहीं हुआ, तो गठबंधन पर पुनर्विचार संभव है. उनकी मछुआ आरक्षण संवैधानिक यात्रा और विधानसभा घेराव की घोषणा बीजेपी पर सीधा दबाव है.

एसबीएसपी

ओम प्रकाश राजभर ने ओबीसी के भीतर अति पिछड़ा (एमबीसी) कोटा की मांग को तेज किया है. सुप्रीम कोर्ट के 2023 के फैसले ने एससी-एसटी में वर्गीकरण को मंजूरी दी है, जिसके आधार पर राजभर हरियाणा मॉडल की तर्ज पर यूपी में उप-कोटा लागू करने का दबाव बना रहे हैं.

अपना दल (एस)

केंद्रीय राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने कुर्मी वोटबैंक से बाहर निकलकर व्यापक ओबीसी आधार बनाने की कोशिश तेज कर दी है. संगठन विस्तार, नए नियुक्तियों, और “ओबीसी मंत्रालय” जैसे विचारों के जरिए वे बीजेपी को संदेश दे रही हैं कि उनकी पार्टी अब केवल एक क्षेत्रीय सहयोगी नहीं है.

आरएलडी

पश्चिमी यूपी में जाट वोटों की मजबूत पकड़ रखने वाली आरएलडी ने हाल ही में बीजेपी के कैबिनेट मंत्री लक्ष्मी नारायण चौधरी की आलोचना का जवाब “कैबिनेट से हटाने” की मांग के साथ दिया. यह संकेत है कि जयंत चौधरी अब जूनियर पार्टनर की भूमिका से बाहर निकलना चाहते हैं. पश्चिमी यूपी में सीटों को लेकर बीजेपी और आरएलडी के बीच तनाव पहले से ही शुरू हो चुका है.

राजनैतिक विश्लेषक “बीजेपी के आंतरिक सर्वे संकेत दे रहे हैं कि 2027 में सिटिंग विधायकों की बड़े पैमाने पर कटौती होगी. सहयोगी दल इसे अवसर मान रहे हैं और अपने प्रभाव वाली सीटों पर ज्यादा दावेदारी ठोक रहे हैं. बीजेपी ने आधिकारिक तौर पर “कोई मतभेद नहीं” का रुख अपनाया है, लेकिन सहयोगियों की एकजुटता और उनके आक्रामक बयानों ने पार्टी को बैकफुट पर ला दिया है.

क्या है बीजेपी की रणनीति?

बीजेपी की रणनीति सूक्ष्म सामाजिक इंजीनियरिंग पर टिकी है. वह गैर-जाटव एससी, निषाद, पसमांदा मुस्लिम, और ओबीसी-एमबीसी समुदायों को टारगेट कर रही है. लेकिन, यही रणनीति सहयोगियों को चिढ़ा रही है, क्योंकि इससे उनकी सियासी जमीन कमजोर होने का खतरा है. संजय निषाद ने सपा और बसपा से आए “आयातित नेताओं” पर निशाना साधते हुए कहा, “बीजेपी को उनसे सावधान रहना चाहिए, जो सहयोगियों की छवि खराब कर रहे हैं.”

2026 के त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव बीजेपी और सहयोगियों के बीच ताकत के प्रदर्शन का पहला बड़ा मंच होंगे. निषाद पार्टी, एसबीएसपी, और अपना दल ने संकेत दिए हैं कि वे अकेले चुनाव लड़ सकते हैं. यह बीजेपी के लिए चिंता का सबब है, क्योंकि इन दलों का अपने-अपने समुदायों में मजबूत आधार गठबंधन की जीत में अहम रहा है.

सपा बसपा को कैसे मिलेगा फायदा?

सहयोगी दलों की एकजुटता सपा की “पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक” (पीडीए) रणनीति और बसपा के पारंपरिक वोटबैंक के लिए भी चुनौती है. सपा ने 2024 के लोकसभा चुनाव में गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलितों को टिकट देकर बीजेपी को कड़ी टक्कर दी थी. अगर एनडीए के सहयोगी दल अलग राह चुनते हैं, तो सपा और बसपा को इसका फायदा मिल सकता है.

बीजेपी के लिए असली परीक्षा सहयोगियों की मांगों को संतुलित करने और उनकी सामाजिक इंजीनियरिंग को अपने फ्रेमवर्क में समाहित करने की होगी. एससी और ओबीसी आरक्षण जैसे बड़े वादों पर ठोस फैसले, मंत्रिमंडल व बोर्ड-निगमों में सम्मानजनक हिस्सेदारी, और 2027 के टिकट वितरण में “इज्जत के साथ” भागीदारी तय करेगी कि यह दबाव “डील” में बदलता है या “डिफेक्ट” की ओर जाता है. उत्तर प्रदेश की सियासत अब उस मोड़ पर है, जहां गठबंधन की ताकत बीजेपी की ताकत हो सकती है, लेकिन अगर सहयोगियों का दबाव अनियंत्रित हुआ, तो यह उसकी सबसे बड़ी कमजोरी भी बन सकता है. 2027 से पहले पंचायत चुनाव इस सियासी जंग का पहला रणक्षेत्र होंगे, और बीजेपी को अपनी कूटनीति की कला का पूरा प्रदर्शन करना होगा.