‘मैं झांसी नहीं दूंगी’, अंग्रेजों से लड़ने वाली वीरांगना की कहानी… माटी के लिए शहीद हुईं रानी लक्ष्मी बाई

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई देश की प्रसिद्ध स्वतंत्रता योद्धाओं में से एक हैं, जिन्होंने अंग्रेजों के सामने झुकना स्वीकार नहीं किया और देश के लिए लड़ पड़ीं. उन्होंने अपनी शौर्यता के अदम्य साहस के सामने अंग्रेजों की बड़ी सेना भी छोटी पड़ गई. उन्होंने ये सिद्ध किया कि भारतीय नारी कमजोर नहीं है बल्कि वो भी देश विरोधी ताकतों के खिलाफ युद्ध छेड़ने में सक्षम है.

झांसी की रानी लक्ष्मी बाई (फाइल फोटो)

भारत के स्वतंत्रता संग्राम की जब भी बात होती है तो कई नाम जहन में आते हैं, इनमें से एक नाम रानी लक्ष्मीबाई का है,जो देश की ऐसी वीरांगना हैं जिनके बारे में सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. वो सिर्फ एक रानी नहीं थीं,बल्कि उस दौर की नारी शक्ति का प्रतीक थीं जब महिलाओं को युद्ध का हिस्सा मानना भी समाज को अजीब लगता था. झांसी अपने कौशल और साहस से उन्होंने इतिहास की धारा ही मोड़ दी. उन्होंने ना केवल तलवार उठाई,बल्कि उसे ऐसा चलाया कि अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिल गई.

कैसा रहा झांसी की लक्ष्मी का बचपन?

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1828 को काशी (अब वाराणसी) में एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके बचपन का नाम था मणिकर्णिका था, लेकिन उन्हें घर में प्यार से मनु कहकर बुलाया जाता था. बचपन से ही मनु में असाधारण साहस था. घुड़सवारी, तलवारबाज़ी, धनुर्विद्या और युद्धकला में उन्हें बहुत रुचि थी. उनकी शिक्षा और प्रशिक्षण उनके पिता मोरोपंत तांबे ने काशी और बाद में झांसी में दी.

झांसी की रानी बनना

14 साल की उम्र में मनु की शादी झांसी के राजा गंगाधर राव से हुई और वे बनीं रानी लक्ष्मीबाई. लेकिन, शादी के कुछ सालों बाद राजा की मृत्यु हो गई और उनके पुत्र को अंग्रेजों ने उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया. डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स नीति के तहत झांसी को हड़पने की कोशिश की गई. यहीं से एक साधारण रानी का रूप बदल गया वो क्रांति का प्रतीक बन गईं.

1857 की क्रांति और लक्ष्मीबाई का युद्ध कौशल

1857 में जब देश में आज़ादी की पहली लड़ाई शुरू हुई, झांसी की रानी उसमें सबसे प्रमुख चेहरा बनकर उभरीं थीं. अंग्रेजों ने सोचा था कि एक महिला उनका क्या बिगाड़ सकती है, लेकिन रानी ने साबित कर दिया कि “मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी” सिर्फ एक वाक्य नहीं, बल्कि देश विरोधी ताकतों के खिलाफ बगावत की आग है.

उनकी सेना में गुलामों से लेकर साधारण किसानों तक ने लड़ना सीखा. तात्या टोपे, राव साहब, झलकारी बाई जैसे योद्धाओं के साथ मिलकर उन्होंने झांसी को एक मजबूत किले में तब्दील कर दिया.

ग्वालियर की लड़ाई और बलिदान

18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में रानी लक्ष्मीबाई ने अंतिम युद्ध लड़ा.घोड़े पर सवार, मर्दाना भेष में युद्ध करती वह वीरांगना शेरनी की तरह लड़ीं. लेकिन, अंग्रेजों की विशाल सेना के सामने वह वीरगति को प्राप्त हुईं मगर मरने से पहले वो अंग्रेजों को ये बता चुकी थीं कि भारतीय नारी कमजोर नहीं होती.

रानी लक्ष्मीबाई की विरासत

रानी लक्ष्मीबाई सिर्फ इतिहास की एक किरदार नहीं, एक प्रेरणा हैं. उनकी जीवनगाथा आज भी हर उस लड़की को साहस देती है जो डरती है, हर उस युवक को आत्मबल देती है जो अन्याय के खिलाफ खड़ा होना चाहता है.

भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया, फिल्मों, नाटकों और किताबों में उन्हें अमर किया गया. लेकिन, असल श्रद्धांजलि यही है कि उनकी तरह निडर बने रहना है.

अमर कथन

“यदि पराधीन रहना पाप है, तो उससे लड़ना पुण्य है…मैं झांसी नहीं दूंगी.”