वाराणसी में पाकिस्तान से आए सिंधियों ने बताया अपना दर्द, बोले- सिंध के बिना हिंदुस्तान अधूरा
उत्तर प्रदेश के वाराणसी में पाकिस्तान के सिंध से आए लोगों ने 70 साल से ज्यादा पुरानी कहानी याद की. लीलाराम सचदेवा नाम के एक शख्स ने टीवी9 डिजिटल की बातचीत में बताया कि उन्हें 75 साल पुरानी कहानी आज भी अच्छे से याद है. उन्होंने कहा कि सिंध के बिना भारत अधूरा है.

पाकिस्तान के सिंध से आए सिंधियों का दर्द बयां करते हुए उत्तर प्रदेश के वाराणसी के लीलाराम सचदेवा ने अपनी कहानी बताई. उन्होंने कहा कि 75 साल हो गए हैं. लेकिन, बाप दादाओं से उन्होंने जो कुछ सुना है वो आज भी उन्हें मुंहजबानी याद है. लीलाराम जी ने टीवी 9 डिजिटल से बातचीत के दौरान कहा कि पंजाब और बंगाल के उलट सिंध से सिंधी लोगों का पलायन सन् 47 की बजाय सन 48 में ज़्यादा हुआ.
21 जनवरी 1948 को हुए कराची में भीषण रक्तपात की वजह से सिंधियों का पलायन तेजी से हुआ. अपना सबकुछ छोड़कर देश के अलग-अलग हिस्सों में सिंधी समाज के लोगों ने पहुंचना शुरू किया. मेरे पिताजी तब नौकरी के सिलसिले में बाहर गए थे, जिस समय कराची में मारकाट हुई थी. मेरी मां बुआ और फूफा जी के साथ वहां से सब कुछ छोड़कर यहां आई.जिसको जहां कुछ अपने परिवार के लिए दिखा वो वहीं लंगर डाल दिया.
मुश्किल से शरणार्थी कैंप में रहते थे
उन्होंने बताया कि 500 से ज़्यादा सिंधी परिवार सातबेला आश्रम के महंत बाबा हरनाम दास के साथ वाराणसी आया उसमें से एक हमारा भी परिवार था.मेरे पिताजी ओडी सचदेवा ने हम सभी भाई बहनों को बताया था कि बहुत मुश्किल भरे हालात थे. ज़्यादातर सिंधी परिवार शरणार्थी कैंप में रहते थे.लहरतारा, पिशाच मोचन और गोदौलिया में एक एक कमरे में चार-चार परिवार रहते थे.
पिताजी ने बीएचयू से डिग्री ली और नौकरी के लिए असम, बिहार और बंगाल में रहें. बड़े भाई को छोड़कर हम सब भाई बहन का जन्म यहीं हुआ.प्राइमरी, मिडल स्कूल के बाद बीएचयू से डिग्री ली और नौकरी किए.मैं नगर निगम में बीजेपी के सभासद दल का नेता तक बना.
हम सभी भाई बहन वेल सेटल थे सबकी शादी अच्छे परिवार में हुई. अब तो दादा नाना बन गए हैं लेकिन सिंध अभी भी जेहन में बसा हुआ है. जबतक सिंध हिंदुस्तान का हिस्सा नहीं बनता तब तक हिंदुस्तान अधूरा है. भगवान दास ब्रह्म खत्री 73 साल के हैं दशास्वमेध पर फेमस मुस्कान सूट के मालिक हैं. लेकिन, यहां तक पहुंचना बिल्कुल भी आसान नहीं था. विशेष रूप से एक शरणार्थी परिवार के सदस्य के लिए. लेकिन, वो यहां तक पहुंचे.
भगवान दास जी बताते हैं कि उनके दादा रुपचंद खत्री और पिता ताराचंद खत्री पाकिस्तान के टंडे महम्मद खां से आए थे.वहां हमारा परिवार खेती बाड़ी करने वाला सम्पन्न परिवार था. लेकिन, यहां बिल्कुल फ़टेहाल स्थिति में आए.पहले वो राजस्थान के ब्यावर गए फिर वहां से बनारस आए. बनारस में वो सबसे पहले विश्वनाथ गली में पहुंचे और रेहणी -ठेला और फिर कपड़ों की फेरी लगाने लगा.
भारत में ही हम भाई-बहन का जन्म हुआ
दादा जी और पिताजी ने बहुत मेहनत की. हम छह बहन और दो भाई यहीं पैदा हुए. हम सभी अपने बिज़नस को ग्रो करने में लगे रहे. आज जब हम सभी भाई बहन दादा नाना और दादी नानी बनकर खुशहाल जीवन जी रहे हैं तो इसके पीछे हमारे बाप दादा की नियत और उनकी मेहनत है.
सतीश छाबड़ा चंदासी कोयला मंडी में एक जाना पहचाना नाम है. लेकिन, इनकी भी जड़ें पाकिस्तान के सिंध से जुड़ी हैं. सतीश छाबड़ा बताते हैं कि उनके दादा लाडूक मल सिंध के पवारी के जमींदार थे. घोड़ी से चलते थे लेकिन, जनवरी 1948 में जो रक्तपात हुआ उससे दुःखी होकर सबकुछ छोड़कर उनको यहां आना पड़ा.
कुछ लोग बंबई चले गए जबकि, दादाजी अपने परिवार के साथ बनारस आ गएं. पिताजी तब गोद में थे. यहां दादाजी ने रेहणी पर दुकानें लगाई, ठेला चलाया फिर बहुत बाद में ईंट का भट्टा लगाया. मेरे दादा और पिता ने बहुत संघर्ष किया था. आज हम सफल कोयला व्यवसायी हैं लेकिन, आज भी ये सोचकर छाती फटी जाती है कि सबकुछ छोड़कर हमें सिर्फ इसलिए यहां आना पड़ा क्योंकि हम सिंधी थे.
दोनों बेटों बिजनेस सफल
आशानंद बादलानी 72 साल के एक सफल फल व्यवसायी हैं. बड़ा बेटा कंस्ट्रक्शन के बिज़नस में है जबकि, छोटे बेटे की नेल पॉलिश की फैक्टरी है. आशानंद जी बताते हैं कि उनके पिता चेतनदास बादलानी सन 47 में कराची से जोधपुर आए. वहां से दिल्ली और फिर सन 1955 में बनारस आया. तब सिंधी समाज के लोग संघर्ष और मेहनत से परिवार को संवारने में लगे थे. सबकुछ भूलकर कि उन्होंने क्या खोया है?
मेरे पिताजी भी बनारस फ्लमंडी में काम शुरू किए और बिज़नस जमाने के लिए अथक प्रयास किया. बीएचयू से हम सभी भाई बहन पढ़े लिखे और इस काबिल बने कि समाज में हमने प्रतिष्ठा हासिल की. आज जब विभाजन विभीषिका पर चर्चा होती है तो मन थोड़ा अशांत हो जाता है. अपने बाप-दादा के संघर्ष और उनकी मेहनत को हम सभी सिंधी समाज के लोग दिल के अंतः करण से याद करते हैं और उनके प्रति कृतज्ञता और समर्पण का भाव रखते हैं.



