अंग्रेजों की नाक में दम करने वाले अशफाक उल्ला खान ने धर्म को लेकर क्या कही थी बड़ी बात?
देश इस बार आजादी की 79 वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है. ऐसे में देश के उन वीर सबूतों को याद करना बेहद अहम है, जिन्होंने मुल्क को गुलामी की जंजीरों से आजाद करने के लिए अपनी जान की तनिक भी परवाह नहीं की और हंसते- हंसते फांसी चूम गए. ऐसे ही एक क्रांतिकारी थे अशफाक उल्ला खान इन्होंने अंग्रेजों की नाम में इस कदर दम करके रखा था कि इन्हें पकड़ने के लिए गोरी सरकार ने पूरी ताकत लगा दी थी और जब अंग्रेजों ने इन्हें धोखे से पकड़ लिया तो इस क्रांतिकारी का बहुत बुरा हस्र किया.
शहीद अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान आजादी की लड़ाई के वो हीरो हैं, जिन्होंने न केवल अंग्रेजी सरकार को चुनौती दी बल्कि हिंदू-मुस्लिम एकता की एक ऐसी मिशाल पेश की, जो कहीं और दिखाई नहीं देती. अशफाक यूपी के छोटे से जिले शाहजहाँपुर में एक पठान परिवार में पैदा हुए थे. उनके पिता शफ़ीक उल्ला ख़ान उन्हें उर्दू के सबक सिखाते थे. देश के लिए उनका जज्बा बचपन से ही था. वे शुरुआत से ही साहसी और चौड़ी कद काठी वाले थे.
अंग्रेजी सरकार की आंखों की किरकिरी थे अशफाक
अशफ़ाक़ की शुरुआती पढ़ाई लिखाई शाहजहाँपुर में ही हुई. उनकी हिंदी और उर्दू के साथ- साथ अंग्रेज़ी पर भी अच्छी कमांड थी. किशोरावस्था से ही वे राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रभावित थे और देश में अंग्रेजों की ज्यादती और जुल्म को लेकर खासा परेशान रहते थे. वे ऐसी व्यवस्था चाहते थे, जहां अपने देश की खुद की स रकार हो न कि किसी और देश के लोग इस मुल्क को गुलाम बनाकर रखें. इसी बीच उनकी मुलाकात रामप्रसाद बिस्मिल से हो गई, जिसके बाद उनके भीतर क्रांति की ऐसी ज्वाला जली जिसकी तपिश गोरी सरकार सहन न कर सकी.
हिंदू-मुस्लिम एकता की मिशाल
जलियाँवाला बाग हत्याकांड जैसी घटनाओं ने उन्हें ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह के लिए खासतौर से प्रेरित किया. वे हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) से जुड़े, जिसका उद्देश्य सशस्त्र क्रांति द्वारा भारत को स्वतंत्र कराना था. अशफ़ाक़ उल्ला ख़ान, रामप्रसाद बिस्मिल के सबसे करीबी सहयोगी बन गए. उनकी मित्रता हिंदू-मुस्लिम एकता की मिशाल के तौर पे देखी जाती है.
काकोरी कांड में अंग्रेजी खजाना लूटा
9 अगस्त 1925 को क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन जुटाने हेतु लखनऊ के पास काकोरी रेलवे स्टेशन पर सरकारी खजाने की लूट की गई. इस घटना में अशफाक उल्ला खान ने अहम भूमिका निभाई. घटना के बाद वे फरार हो गए और कई राज्यों में भेष बदलकर घूमते रहे. उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए विदेश जाने का भी प्रयास किया, लेकिन किसी साथी के विश्वासघात की वजह से गिरफ्तार कर लिए गए.
धर्म के बारे में क्या थी उनकी राय
काकोरी कांड के आरोप में अंग्रेजी सरकार ने उनके खिलाफ मुकदमा चलाया और फिर फाँसी की सज़ा सुनाई. 19 दिसंबर 1927 को फैजाबाद की जेल में उन्हें फाँसी दे दी गई. जब उन्हें फाँसी देने के लिए ले जाया जा रहा था तो उन्होंने आखिरी वक्त में भारत माता की जय के नारे लगाए और फिर फांसी पर झूल गए.
वे न केवल जांबाज क्रांतिकारी थे, बल्कि एक कवि भी थे. वे तख़ल्लुस नाम से उर्दू में शायरी किया करते थे. वे धार्मिक रूप से तो मुसलमान थे, लेकिन उन्होंने हमेशा देश को धर्म से पहले तर्जी दी.