न काम है, न मजदूरी…हैंडलूम डे के 10 साल पर बनारस के बुनकरों ने बताया अपना हाल
आज हैंडलूम डे मनाया जा रहा है. 7 अगस्त 1905 से स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत हुई थी, लेकिन भारत सरकार की तरफ से 7 अगस्त 2015 को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाए जाने की शुरुआत की गई. ऐसे में जानते हैं कि मौजूदा समय में बनारस के बुकरों के बारे में, इन दस सालों में आखिर उनके जीवन में कितना बदलाव आया है.
नेशनल हैंडलूम डे को आज दस साल पूरे हो गएं. इन दस सालों में बुनकरों के जीवन में क्या बदलाव आएं? ये समझने के लिए वाराणसी के जलालीपुरा इलाके में टीवी9 की टीम पहुंची,जहां बुनकरों के हालात पर चर्चा की गई. जलालीपुरा एक बुनकर बहुल इलाका है. जलालीपुरा के बुनकरों ने बताया कि पिछले दस सालों में उनकी हालत लगातार ख़राब होते चली गई. न तो पलायन रुका और न ही कारोबार बेहतर हो पाया. बच्चों की पढ़ाई रुक गई और घर चलाना मुश्किल हो गया. अब तक करीब चार लाख बुनकर बनारस छोड़कर सूरत और बेंगलुरु चले गएं.
न काम है और न ही मजदूरी
बातचीत के दौरान बुनकरों ने बताया कि वाराणसी में बुनकरों के हालात बहुत खराब हैं, काम है नहीं और मजदूरी कम होते जा रही है, लाखों बुनकर सूरत और बेंगलुरु पलायन कर गए हैं. अब पता चल रहा है कि वो पहले वाले दिन ही हमारे लिए अच्छे थे तब काम मिलता रहा, मजदूरी अच्छी थी लेकिन, पिछले दस सालों से हालात लगातार ख़राब होते चले गए.
स्कूल नहीं जा पा रहे हैं बच्चे
यहां के जलालीपुरा के वार्ड नंबर 63 में बशीर मियां का मकान है. बशीर मियां पिछले चालीस साल से बुनकर का काम कर रहे हैं. उनके पांच बच्चों में से सिर्फ उनकी बिटिया गुलनार ही स्थानीय मदरसे में जाती है. बाकी के बच्चे स्कूल नहीं जाते. बशीर बताते हैं कि जलालीपुरा के 75% बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं.
बशीर कहते हैं कि यहां के बुनकरों का मानना है कि प्राइवेट स्कूल में भेजने की हमारी हैसियत नहीं है और सरकारी स्कूलों में भेजने से अच्छा है कि कोई काम काज ही सीख लें. बशीर मियां की पत्नी शहनाज़ कहती हैं कि 25 साल हो गए उनको शादी कर के आए तब से उनकी यही ज़िन्दगी है. दो वक्त की रोटी के लिए हर दिन लड़ाई लड़नी पड़ती है.