जरा याद करो कुर्बानी… करगिल विजय दिवस पर लखनऊ को गर्व, 26 साल बाद भी अधूरा है सरकार का वादा

कारगिल विजय दिवस की 26वीं वर्षी पर लखनऊ के शहीद जवानों को याद किया जा रहा है. इस युद्ध में परमवीर चक्र विजेता कैप्टन मनोज पांडेय सहित कई वीरों ने अपने प्राण न्योछावर किए. उनके परिवारों को इस शहादत पर तो गर्व है, लेकिन एक टीस भी है कि सरकार ने अपना वादा पूरा नहीं किया.

सांकेतिक तस्वीर

आज 26 जुलाई यानी करगिल विजय दिवस है. 26 साल पहले आज ही के दिन भारत के वीर जवानों ने पाकिस्तान को अघोषित युद्ध में शिकस्त देते हुए करगिल पर फिर से कब्जा किया था. उस लड़ाई में हमारे जवानों ने जान पर खेल कर करगिल की ऊंची चोटियों पर अपना लहू बहाते हुए तिरंगा फहराया था. आज 26 साल बाद समूचे देश में उन शहीदों को याद किया जा रहा है. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सेना प्रमुख समेत तमाम हस्तियां शहीदों को श्रद्धांजलि दे रही हैं. इस लड़ाई में लखनऊ ने भी अपने वीर जवानों की आहुति दी थी.

अपने लहू से शौर्य गाथाएं लिखने वाले लखनऊ के जांबाज सिपाहियों में परमवीर चक्र विजेता कैप्टन मनोज पांडेय, मेजर रीतेश शर्मा, राइफलमैन सुनील जंग, लांस नायक केवलानंद द्विवेदी और कैप्टन आदित्य मिश्र जैसे नायक शामिल हैं. इन शहीदों की वीरता पर लखनऊ को गर्व है, लेकिन उनके परिजनों के दिलों में आज भी एक टीस है. यह टीस सरकार की बेरूखी की वजह से है. उनका कहना है कि सरकार द्वारा किए गए वादे आज भी अधूरे हैं.

बलिदान की अनमोल दास्तां

कैप्टन मनोज पांडेय : कारगिल युद्ध के नायक, जिन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. 4 मई, 1999 को खालुबार की बर्फीली चोटियों पर भारतीय चौकियों को दुश्मनों से मुक्त कराने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर थी. एक-एक कर दुश्मन के चार बंकर ध्वस्त करते हुए उन्होंने अदम्य साहस का परिचय दिया. लेकिन, इस मिशन में वह वीरगति को प्राप्त हुए. उनके पिता गोपीचंद पांडेय को बेटे की शहादत पर गर्व है, लेकिन वह आज भी बेटे की याद में डूबे रहते हैं. वे कहते हैं कि मनोज का जाना मेरे जीवन में एक ऐसा खालीपन छोड़ गया, जो शायद मौत के बाद ही भरे.

मेजर रीतेश शर्मा: लखनऊ के लामाटीनियर कॉलेज के होनहार छात्र, जिन्होंने कारगिल युद्ध के बाद कुपवाड़ा में आतंकी ऑपरेशन में शहादत दी. 25 सितंबर, 1999 को एक खाई में गिरने के बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उनका निधन हो गया था. उनके पिता सत्यप्रकाश शर्मा इंदिरा नगर में रहते हैं. वह कहते हैं कि सरकार ने हमें लीज पर जमीन दी, लेकिन इसका उपयोग नहीं हो पा रहा. अगर इसे फ्री होल्ड कर दिया जाए तो परिवार को राहत मिलेगी. उनकी आवाज में बेटे के बलिदान का दर्द साफ झलकता है. आज का दिन शहादत को याद कर खानापूर्ति का दिन नहीं है, बल्कि यही मौका जब सरकार और समाज शहीदों के परिजनों की खोज खबर ले.

राइफलमैन सुनील जंग : गोरखा राइफल्स में 1995 में भर्ती हुए सुनील महज 21 साल की उम्र में शहीद हो गए. उनकी मां बीना जंग छावनी के तोपखाना में रहती हैं. वह कहती हैं कि सुनील के दादा मेजर नकुल जंग और पिता नर नारायण जंग भी सेना में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. बीना के मुताबिक सरकार ने सुनील के नाम पर स्टेडियम बनाने का वादा किया था, उसे मरणोपरांत शौर्य चक्र देने की बात कही थी. आज 26 साल बाद भी ये वादे अधूरे हैं.

कैप्टन आदित्य मिश्र: 8 जून, 1996 को सेना के सिग्नल कोर में सेकेंड लेफ्टिनेंट के रूप में भर्ती हुए आदित्य ने बटालिक की 17 हजार फीट ऊंची चोटी पर भारतीय पोस्ट को दुश्मनों से मुक्त कराया था. सिग्नलिंग के तार बिछाते समय उनके ऊपर फायरिंग होती रही, लेकिन वह अपनी ड्यूटी पर डटे और आखिर में वीरगति को प्राप्त हुए. उनकी शौर्य गाथा आज भी हर भारतीय के दिल में बसती है.

लांस नायक केवलानंद द्विवेदी: अपनी बीमार पत्नी कमला को छोड़कर कारगिल युद्ध में गए केवलानंद ने देश के लिए जान न्योछावर कर दिया. कमला ने जैसे-तैसे अपने बेटों तीरघराज और हेमचंद को पढ़ाया-लिखाया, लेकिन उन्हें हमेशा यह मलाल रहा कि पति के बलिदान को पूरा सम्मान नहीं मिला, जिसका वे हकदार थे. कमला कहती हैं, “सरकार ने नौकरी और अन्य सुविधाओं का वादा किया था, लेकिन मिला कुछ भी नहीं. इसके चलते उनके परिवार को आज भी सरकारी उदासीनता का दंश झेलना पड़ रहा है.

लखनऊ के दो भाइयों का अनोखा शौर्य

कारगिल युद्ध में लखनऊ के दो भाइयों, कर्नल जीपीएस कौशिक और स्क्वैड्रन लीडर एसपीएस कौशिक ने भी अपनी वीरता से इतिहास रचा था. कर्नल कौशिक ने सेना के एविएशन कोर में हेलीकॉप्टर से युद्ध में 3500 ऑपरेशन किए. जरूरी रसद और सैन्य सामग्री पहुंचाई. वहीं, उनके भाई स्क्वैड्रन लीडर कौशिक ने वायुसेना के जहाजों से पैरा कमांडो को युद्धक्षेत्र तक पहुंचाया. इन भाइयों की जांबाजी ने लखनऊ का सिर गर्व से ऊंचा किया.

परिजनों अधूरे वादों का दर्द

शहीदों के परिवारों का कहना है कि उनके बलिदान को सम्मान तो मिला, लेकिन सरकार के वादे कागजों तक सीमित रह गए. राइफलमैन सुनील जंग की मां बीना कहती हैं, “मेरा बेटा देश के लिए लड़ा, लेकिन हमें वह सम्मान और सुविधाएं नहीं मिलीं, जो वादा किया गया था।” मेजर रीतेश शर्मा के पिता सत्यप्रकाश की मांग है कि लीज की जमीन को फ्री होल्ड किया जाए, ताकि परिवार उसका उपयोग कर सके. लांसनायक केवलानंद की पत्नी कमला का कहना है, “हमने सब कुछ खो दिया, लेकिन सरकार ने हमें कुछ नहीं दिया.